
धर्मनिरपेक्षता की जीवंत मिसाल है लंगटा बाबा का समाधिस्थल
झारखंड के गिरिडीह जिला मुख्यालय से 35 किलोमीटर दूर जमुआ - देवघर पथ पर उसरी नदी किनारे स्थित खरगडीहा गांव में उनकी समाधि है। पौष पूर्णिमा पर यहां हिंदू, मुस्लिम, सिख, इसाई सभी धर्मावलंबी बड़े ही श्रद्धा से सजदा करने आते हैं। बताया जाता है कि 1870 के दशक में नागा साधुओं की एक टोली के साथ वे यहां पहुंचे थे। उस वक्त खरगडीहा परगना हुआ करता था। कुछ दिन के पड़ाव के बाद नागा साधुओं की टोली अपने गंतव्य की ओर रवाना हो गयी लेकिन एक साधु यही रह गए जो बाद में लंगटा बाबा के नाम से विख्यात हुए।
किस पंथ के थे बाबा
कहते हैं कि संतों की कोई पंथ परंपरा नहीं होती। लंगटा बाबा भी किसी खास संप्रदाय या परंपरा से नहीं है वे प्राणी मात्र के लिए है। उनके मन में मानव के साथ साथ पशु पक्षियों के प्रति भी अगाध प्रेम था। लंगटा बाबा ने 25 जनवरी 1910 में महासमाधि ली थी।
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समाधिस्थल पर उमड़ी भीड़ (फाइल फोटो) |
पौष पूर्णिमा ही क्यों
बर्ष 1910 में पौष पूर्णिमा के दिन जब लंगटा बाबा ने अपने भौतिक देह का त्याग किया तो उस वक्त क्षेत्र के हिंदू एवं मुसलमानों को ऐसा लग रहा था कि उनका सबकुछ लूट गया। बाबा के शरीर के अंतिम संस्कार के लिए भी दोनों समुदाय के लोग आपस में उलझ पड़े थे। बताते हैं कि तब क्षेत्र के प्रबुद्ध लोगों ने विचार- विमर्श के बाद दोनों धर्म के रीति - रिवाज से अंतिम संस्कार किया था। उसके बाद से प्रत्येक बर्ष पौष पूर्णिमा के दिन यहां मेला लगता है। मेला में उमड़ने वाली भीड़ यह स्पष्ट संकेत देती है कि पीड़ित मानवता की रक्षा करनेवाले संत आज भी आमजनों के दिल में जीवित हैं। पौष पूर्णिमा यानि बाबा के समाधि दिवस पर यहां विशाल भंडारे का आयोजन होता है। जिसमें दूर -दराज से आये भिखारी, फकीर एवं भक्तों के बीच देशी घी से बनी पुड़ी - सब्जी व हलवा को प्रसाद के रूप में वितरित किया जाता है।
पौष पूर्णिमा यानि 21 जनवरी को मैनें भी बाबा की समाधिस्थल जाने की योजना बनाई है। यह मेरी बाइक यात्रा होगी और इस यात्रा व समाधिस्थल का विवरण भी आपसे साझा करूंगा।
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